Sunday, September 21, 2014

आज का संगीत



आज एक महाशय ( एक मित्र के मित्र) को फेसबुक पर दुखी होते पढ़ा की हमारे देश में संगीत की कितनी दुर्दशा हो चुकी है एवं यो यो हनी सिंह और बादशाह जैसे गायकों ने भद्दे भद्दे गानो ला कर समाज प्रदूषित कर रखा है। हमें यह बात कुछ जँची नहीं तो हमने उस पोस्ट का जवाब कुछ यूँ दिया:

"यद्यपि हमारी और आपकी जान पहचान तो नहीं है, किन्तु आपके शब्दों भीतर कहीं दबा छुपा विरोधाभास देखा तो स्वयं को रोक न पाया। सोचा अपने विचार प्रकट कर ही दूँ, शायद इसी बहाने मित्रता हो जाए।

आपको एक कहानी सुनाता हूँ:

एक बालक ने अपने घर के बरामदे में खड़े हो कर राह चलते एक व्यक्ति पर एक कंकड़ फेंका। कंकड़ भले आदमी को लगा किन्तु उसे बच्चे पर क्रोध नहीं बल्कि उसकी बाल सुलभ हरकत पर हंसी आ गयी- वह बालक को देख कर हंसा और आगे चलता बना। बालक को लगा उसकी प्रशंसा हुई और वह और उत्साह इसी प्रक्रिया को दोहराने लगा। आज वो लोगो पर बड़े बड़े पथ्थर फेंकता है- जिन्हे चोट लगती है उन्हें गुस्सा आता है और तमाशबीनों को हंसी।
यदि बालक को पहली बार डांट पड़ जाती वह शायद ऐसा न करता। या अगर तमाशबीन हंसना बंद कर दें तो वह अकेला पड़ जाए और शायद इस भय से पथ्थर फेंकना बंद कर दे की कहीं नाराज़ होने वालों में से कोई व्यक्ति हमें एक कंटाप रख न दे।

मैं ये मानता हूँ की कला यानि की आर्ट अपने श्रोताओं/ दर्शकों के समाज का प्रतिबिम्ब होता है। यदि हमसे एक पीढ़ी नीचे के यह किशोरवय बालक इन गानों को सुनना बंद कर दें तो कौन हनी सिंह और कौन बादशाह। हमारा दुर्भाग्य यह नहीं है मित्र की आज हनी सिंह या बादशाह भद्दे गाने गा रहे हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है की हमारे और हमसे एक छोटी पीढ़ी के बीच संवाद का अभाव इस अधीर स्थिति में पहुँच चुका है की जो हमें भद्दा लगता है वह उन्हें कर्णप्रिय प्रतीत होता है। यदि हम अपनी खुशफहमी से बहार निकल कर विश्लेषण करें तो हम शायद यही पाएंगे की समस्या तो हम लोगों में ही है।"


हमें यह नहीं पता उन्हें बुरा लगा या भला. उम्मीद यही करता हूँ हमारा तर्क अवश्य समझ आया होगा।

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